पालनहार श्री हरी विष्णु ने कूर्म अवतार लेकर समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत को स्थिर करने के लिए अपनी विशाल पीठ पर रख लिया और उस पहाड़ को संतुलित किया.
त्रिदेवों में भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालन और पालन का दायित्व का है, जिसके लिए वे समय – समय पर अलग – अलग रूप में अवतार लेकर अधर्म का अंत और धर्म का विस्तार करते आ रहे हैं. उनके अनेकों अवतारों में से प्रमुख दस अवतारों को दशावतार के नाम से जाना जाता है, जिसमें से उनका दूसरा प्रमुख अवतार है भगवान कूर्म अवतार. उन्होंने यह अवतार समुद्र मंथन के समय लिया था और अपनी पीठ कवच पर मंदार पर्वत को स्थिर कर इस मंथन को सफल बनाया था.
विक्की पीडिया की जानकारियों के मुताबिक देवराज इंद्र के शौर्य को देख ऋषि दुर्वासा नें उन्हें पारिजात पुष्प की माला भेंट की परंतु इंद्र नें इसे ग्रहण न करते हुए ऐरावत को पहना दिया और ऐरावत नें उसे भूमि पर फेंक दिया, दुर्वासा ने इससे क्रोधित होकर देवताओं को श्राप दे दिया, इनके देवताओं पर अभिशाप के कारण देवताओं ने अपनी शक्ति खो दी. इससे अत्यंत निराश होकर वे ब्रह्मा के पास मार्गदर्शन के लिए पहुँचे. उन्होंने देवताओं को भगवान विष्णु से संपर्क करने को कहा और विष्णु ने उन्हें यह सलाह दी कि वे क्षीर समुद्र का मंथन करें जिससे अमृत मिलेगी, इस अमृत को पीने से देवों की शक्ती वापस आ जाएगी व वे सदा के लिए अमर हो जाएँगे.
किन्तु समुद्र मंथन जैसा कृत्य कोई सरल कार्य नहीं था इसलिए देवताओं के असुरों की भी शक्ति सम्मलित होना आवश्यक था. जिसके बाद क्षीरसागर में मंदार पर्वत के सहारे से एक तरफ़ सभी देवता और दूसरी तरफ़ असुरों ने मंथन कार्य आरंभ किया, बता दें की मंदार पर्वत से मंथन करने के लिए रस्सी के स्थान पर वासुकी नाग का प्रयोग किया गया. देवताओं और असुरों की सामूहिक शक्तियों के बाद भी मंदार पर्वत इतना भारी था की वो क्षीरसागर में डूबने लगा और यदि वो डूब जाता तो यह कार्य सम्पन्न नहीं होता व संसार को वे 14 रत्न भी नहीं मिलते. इसलिए सृष्टि कल्याण के लिए भगवान श्री हरी कूर्म यानि की कच्छप (कछुवे) के रूप में अवतरित हुए और उन्होंने अपनी विशाल पीठ से मंदार पर्वत को एक स्थान पर स्थिर किया. जिस कारण यह मंथन सम्पन्न हुआ और संसार को दिव्य रत्नों की प्राप्ति हुई.
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